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मिर्ज़ा ग़ालिब 1797-1869

नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने  क्या बने बात जहाँ बात बताए न बने  मैं बुलाता तो हूँ उस को मगर  ऐ जज़्बा-ए-दिल  उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए काश यूँ भी हो  कि बिन मेरे सताए न बने ग़ैर फिरता है लिए यूँ तिरे ख़त को कि अगर कोई पूछे  कि ये क्या है तो छुपाए न बने उस नज़ाकत  का बुरा हो वो भले हैं तो क्या हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने  कह सके कौन  कि ये जल्वागरी किस की है  पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए न बने  मौत की राह न देखूँ  कि बिन आए न रहे तुम को चाहूँ कि न आओ तो बुलाए न बने  बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न उठे काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब' कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

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