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Showing posts from 2016

जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली-मीना कुमारी

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली रिमझिम-रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी  आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज़ सुनी जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे जलती-बुझती आँखों में, सादा-सी जो बात मिली -मीना कुमारी

Mera khuda naraj hai mujhe sey

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  Mera khuda naraj hai mujhe sey Kayun mainey tujhey , Apna khudha kahay dala------  मेरा खुदा नाराज़ है मुझसे   क्यूँ मैंने तुझे  अपना खुदा कह डाला -----------                                               مرة خودا نعرج حي مجزي                                                كاين ميني توجهي                                                أبنة خودا كاهي دالة -----  Zindagi tu mujhey kia kia rang dikhati hai...... par mera hunar dekh,z tu dekh mera zarf... Mai, Inhi rangon sey ...

कतरनें ----नीलम चौधरी

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                                          कतरनें                                                 क्यू बिफरते हो ,बिगड़ते हो                                  ज़माने की  बदली  हवाओं  पर ,                                       ये तो दौर ही ऐसा है ,           ख़ामोश रहने वालों की                       ख़बर कोई नहीं लेता।                                       ...

तरकश के तीर-----नीलम चौधरी

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तरकश के तीर-----नीलम चौधरी चर्खन्दाज हूँ ... जफ़ाकश हूँ ; तो ,क्यूँ न तान दूँ तरकश के सारे तीर उसके सीने में एक भी कतरा लहू का न छोड़ा  इस ज़ीरूह ज़िस्म में।  ये  उड़ती  धूल-आँधी , मेरे निशां मिटाने पे अड़ी है ; और  एक मैं हूँ  जो  इन्हें बिखरने नहीं  देती . .... 

यूँ तुझे ढूँढने निकले की ना आये खुद भी-अहमद फराज

यूँ तुझे ढूँढने निकले की ना आये खुद भी वो मुसाफ़िर की जो मंजिल थे बजाये खुद भी कितने ग़म थे की ज़माने  से छुपा रक्खे थे इस तरह से की हमें याद ना आये खुद भी ऐसा ज़ालिम की अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म हमसे रह जाए तो वो याद दिलाये ख़ुद भी लुत्फ़ तो जब है ताल्लुक में की वो शहर-ए-जमाल कभी खींचे, कभी खींचता चला आये खुद भी ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिये रंग-ए-महफ़िल सबको मदहोश करे होश से जाए खुद भी यार से हमको तग़ाफ़ुल का गिला क्यूँ हो के हम बारहाँ महफ़िल-ए-जानां से उठ आये खुद भी… -अहमद फराज

बंदगी हमने छोड़ दी है ‘फ़राज़’; क्या करें लोग जब खुदा हो जाएं।

इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं; क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं; तु भी हीरे से बन  जाए पत्थर; हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएं; इश्क़ भी खेल है नसीबों का; ख़ाक हो जाएं कीमिया हो जाएं; अबके गर तु मिले तो हम तुझसे; ऐसे लिपटे कि तेरी क़बा हो जाएं; बंदगी हमने छोड़ दी है ‘फ़राज़’; क्या करें लोग जब खुदा हो जाएं।

ये मोहब्बत भी है क्या रोग ‘फ़राज़’ जिसको भूले वो सदा याद आया।

जो भी दुख याद न था याद आया आज क्या जानिए क्या याद आया। याद आया था बिछड़ना तेरा  फिर नहीं याद कि क्या याद आया। हाथ उठाए था कि दिल बैठ गया जाने क्या वक़्त-ए-दुआ याद आया। जिस तरह धुंध में लिपटे हुए फूल इक इक नक़्श तेरा याद आया। ये मोहब्बत भी है क्या रोग ‘फ़राज़’ जिसको भूले वो सदा याद आया।

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो नशा बड़ता है शरबें जो शराबों में मिलें आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें अब न वो मैं हूँ न तु है न वो माज़ी है “फ़राज़” जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें खराबों – खंडहर हिजाबों – पर्दों दार – फांसी घर निसाबों – पाठ्यक्रम, ग्रन्थ माज़ी – अतीत काल सराबों – मृगतृष्णा -अहमद फ़राज़

​​आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं ‘फ़राज़’​;

ऐसे चुप है कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे​;​ ​तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे​;​​​ ​​ ​​अपने ही साये से हर कदम  लरज़ जाता हूँ​;​ ​रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे​;​ ​​ ​​कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे​;​ ​याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे​;​ ​​ मंज़िलें दूर भी हैं, मंज़िलें नज़दीक भी हैं​;​ ​अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे​;​ ​​ ​​आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं ‘फ़राज़’​; ​चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे। -अहमद फ़राज़

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