आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं ‘फ़राज़’;
ऐसे चुप है कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे;
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे;
अपने ही साये से हर कदम लरज़ जाता हूँ;
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे;
कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे;
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे;
मंज़िलें दूर भी हैं, मंज़िलें नज़दीक भी हैं;
अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे;
आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं ‘फ़राज़’;
चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे।
-अहमद फ़राज़
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे;
अपने ही साये से हर कदम लरज़ जाता हूँ;
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे;
कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे;
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे;
मंज़िलें दूर भी हैं, मंज़िलें नज़दीक भी हैं;
अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे;
आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं ‘फ़राज़’;
चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे।
-अहमद फ़राज़
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