अमीर क़ज़लबाश 1943-2003दिल्ली
कारगर कोई भी तदबीर न होने देगा
क्या मुक़द्दर है कि ले जाएगा दर-दर मुझ को
क्या बिगड़ता है मुस्कुराने में
मिरे जुनूँ का नतीजा ज़रूर निकलेगा
इसी सियाह समुंदर से नूर निकलेगा
उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़
हमें यक़ीं था हमारा क़ुसूर निकलेगा
नदी के पार उजाला दिखाई देता है
मुझे ये ख़्वाब हमेशा दिखाई देता है
तिरी निगाह ने हल्का सा नक़्श छोड़ा था
मगर ये ज़ख़्म तो गहरा दिखाई देता है
मैं क्या जानूँ घरों का हाल क्या है
मैं सारी ज़िंदगी बाहर रहा हूँ
नज़र में हर दुश्वारी रख
ख़्वाबों में बेदारी रख
दुनिया से झुक कर मत मिल
रिश्तों में हमवारी रख
सोच समझ कर बातें कर
लफ़्ज़ों में तहदारी रख
फ़ुटपाथों पर चैन से सो
घर में शब-बेदारी रख
तू भी सब जैसा बन जा
बीच में दुनिया-दारी रख
एक ख़बर है तेरे लिए
दिल पर पत्थर भारी रख
ख़ाली हाथ निकल घर से
ज़ाद-ए-सफ़र हुश्यारी रख
शेर सुना और भूका मर
इस ख़िदमत को जारी रख
शहर में सच बोलता फिरता हूँ मैं
लोग ख़ाइफ़ हैं मिरे अंजाम से
ज़मीं पर हो अपनी हिफ़ाज़त करो
ख़ुदा तो मियाँ आसमानों में है
हवा रुख़ बदलती रहे भी तो क्या
परिंदा तो अपनी उड़ानों में है
दोस्तो ख़्वाब भी ज़रूरी है
मिरे पड़ोस में ऐसे भी लोग बसते हैं
जो मुझ में ढूँड रहे हैं बुराइयाँ अपनी
तुम राह में चुप-चाप खड़े हो तो गए हो
किस किस को बताओगे कि घर क्यूँ नहीं जाते
वक़्त के साथ बदलना तो बहुत आसाँ था
मुझ से हर वक़्त मुख़ातिब रही ग़ैरत मेरी
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