हर शाम एक मसअला घर भर के वास्ते -अमीर क़ज़लबाश

हर शाम एक मसअला घर भर के वास्ते बच्चा ब-ज़िद है चाँद को छू कर भी आएगा किसी की बेवफ़ाई का गिला था न जाने आप क्यूँ शरमा रहे हैं ये दीवाना किसी की क्या सुनेगा ये दीवाने किसे समझा रहे हैं अपने हमराह ख़ुद चला करना कौन आएगा मत रुका करना ख़ुद को पहचानने की कोशिश में देर तक आइना तका करना वो पयम्बर था भूल जाता था सिर्फ़ अपने लिए दुआ करना यार क्या ज़िंदगी है सूरज की सुब्ह से शाम तक जला करना कुछ तो अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ हो 'अमीर' नाव काग़ज़ की चला कर देखूँ देख के मुझ को गुम-सुम हैं आए थे समझाने लोग ख़ुशी की लहर दौड़ी दुश्मनों में वो शायद दोस्तों में घिर गया है सभी को पार उतरने की जुस्तुजू लेकिन न बादबाँ न समुंदर न कश्तियाँ अपनी वो जो इक शख़्स ब-ज़िद है कि भुला दो मुझ को भूल जाऊँ तो उसी शख़्स को सदमा होगा घर से निकलूँ तो मना कर लाऊँ वो तबस्सुम जो ख़फ़ा है लब से इक परिंदा अभी उड़ान में है तीर हर शख़्स की कमान में है लोग जिस हाल में मरने की दुआ करते हैं मैं ने उस हाल में जीने की क़सम खाई है आग में लिपटा हुआ हद्द-ए-नज़र तक साहिल हौसला डूबने वालों का बढ़ा देता था क्यूँ परिंदों ने दरख़्तों पे बसेरा न किया कौन गुज़रे हुए मौसम का पता देता था सुना है अब भी मिरे हाथ की लकीरों में नजूमियों को मुक़द्दर दिखाई देता है (astrologer) ख़्वाबों की कश्तियों से उतर जाइए जनाब हर रहगुज़र में काहकशाँ छोड़ जाऊँगा ज़िंदा हूँ ज़िंदगी के निशाँ छोड़ जाऊँगा राह मत रोक कि मुश्किल है बहुत बहता पानी हूँ गुज़रने दे मुझे

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