साहिर लुधियानवी
"हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं "
हिंदू ना मुसलमान है इश्क़
इश्क़ आज़ाद है
आप ही धर्म है और आप ही ईमान है इश्क़
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
ये राह कहाँ से है ये राह कहाँ तक है
ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है
वो सुबह कभी तो आयेगी
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर, ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर, दौलत की इजारादारी के
सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा
कौन रोता है किसी और की ख़ातिर, ऐ दोस्त
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया
कब आयेंगे तुमसे बेहतर कहने वाले.. हमसे बेहतर सुनने वाले।
ख़त्म करो तहज़ीब की बात, बन्द करो कल्चर का शोर।
सत्य, अहिंसा सब बकवास, तुम भी क़ातिल हम भी चोर।
इस रेंगती हयात का कब तक उठाए बार
बीमार अब उलझने लगे है तबीब से
'गाँधी' हो कि 'ग़ालिब' हो इंसाफ़ की नज़रों में
हम दोनों के क़ातिल हैं दोनों के पुजारी हैं
ज़िन्दगी यूं तो हमेशा से परेशान-सी थी,
अब तो हर साँस गिराँबार हुई जाती है।
जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहाँ हैं......
जिन्हें नाज है वो कहाँ हैं .....
आसमाँ पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम
आज कल वो इस तरफ़ देखता है कम...
आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर ...
गर ज़िंदगी में मिल गए फिर इत्तिफ़ाक़ से
पूछेंगे अपना हाल तिरी बेबसी से हम
दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या
ये बोझ अगर दिल से उतर जाए तो अच्छा
पहले हंस के मिलते हैं फिर नज़र चुराते हैं
आश्ना-सिफ़त हैं लोग अजनबी दियारों के
ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा ...
ज़िन्दगी एक सुलगती सी चिता है “साहिर”
शोला बनती है ना ये बुझ के धुआँ होती है
छुपा छुपा के ख़मोशी में अपनी बेचैनी
ख़ुद अपने राज़ की तशहीर बन गई हो तुम --publicity
जो तार से निकली है वो धुन सब ने सुनी है
जो साज़ पे गुज़री है वो किस दिल को पता है
मैं देखूंँ तो सही दुनिया तुम्हें कैसे सताती है
कोई दिन के लिए अपनी निगेहबानी मुझे दे दो
मैं पल दो पल का शायर हूँ पल दो पल मेरी कहानी है,
पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मेरी जवानी है
लो आज हमने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उम्मीद
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम
ये वादियाँ ये फिज़ाएँ बुला रही हैं तुम्हें
खामोशियों की सदाएँ बुला रही हैं तुम्हें
चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है आँखों में सुरूर आ जाता है
जब तुम मुझे अपना कहते हो अपने पे ग़ुरूर आ जाता है
अहल-ए-दिल और भी हैं अहल-ए-वफ़ा और भी हैं
एक हम ही नहीं दुनिया से ख़फ़ा और भी हैं
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है
टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
इसलिए ऐ शरीफ इंसानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
किसको भेजे वो यहाँ खाक छानने
इस तमाम भीड़ का हाल जानने
आदमी हैं अनगिनत, देवता हैं कम
मोहब्बत बेरूख़ी से और भड़केगी वो क्या जाने
तबीयत इस अदापे और फड़केगी वो क्या जाने
वो क्या जानेके अपना किस कयामत का इरादा है
देर तक आँखों में चुभरती रही तारों की चमक
देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में
अब आएँ या न आएँ इधर, पूछते चलो
क्या चाहती है उनकी नजर, पूछते चलो
जो कभी खुल के न बरसे, वो घटा लगती हो
सिर्फ़ हमसे नहीं खुद से भी ख़फ़ा लगती हो
देखा है जिन्दगी को कुछ इस करीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं, अजीब से..
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशक़दमी से...
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराये हैं...
जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात
एक अन्जान मुसाफिर से मुलाकात की रात
न जाने कौन सा पल,
मौत की अमानत हो;
हर एक पल की खुशी को,
गले लगा के जिओ!
जो वादा किया वो निभाना पडेगा
रोके ज़माना चाहे, रोके खुदाई,
तुम को आना पडेगा...
अभी ना जाओ छोड़कर
के दिल अभी भरा नहीं...
इक शहंशाह ने दौलतका सहारा लेकर
हम गरीबोंको प्यारका मजाक उडाया है ।
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है
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