ये चालाकों की बस्ती थी और हज़रत शर्मीले थे -ग़ुलाम मोहम्म-द 'क़ासिर'
मेरे क़िस्से में अचानक जुगनुओं का ज़िक्र आया
आसमाँ पर मेरे हिस्से के सितारे जल रहे हैं
राख होते जा रहे हैं माह-ओ-साल-ए-ज़िंदगानी
जगमगा उठ्ठा जहाँ हम साथ पल दो पल रहे हैं
जुनूँ का जाम मोहब्बत की मय ख़िरद का ख़ुमार
हमीं थे वो जो ये सारे कमाल रखते थे
सब से कट कर रह गया ख़ुद मैं सिमट कर रह गया
सिलसिला टूटा कहाँ से सोचता भी मैं ही था
शौक़ बरहना-पा चलता था और रस्ते पथरीले थे
घिसते घिसते घिस गए आख़िर कंकर जो नोकीले थे
कौन ग़ुलाम मोहम्मद 'क़ासिर' बेचारे से करता बात
ये चालाकों की बस्ती थी और हज़रत शर्मीले थे
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