क्या किसान आर्थिक प्रगति पर बोझ हैं?
क्या किसान आर्थिक प्रगति पर बोझ हैं?
....
भारत के 85 करोड़ किसान
मेरे पिताजी भारत सरकार के कर्मचारी थे। 1996 के आसपास उनकी सैलरी लगभग छः हज़ार रुपए महीना थी। आज उन्हीं के पोस्ट पर काम करने वाले लोगों की सैलरी लगभग सत्तर हज़ार रुपए हैं। मेरे पिताजी 55 साल की उम्र तक साइकिल से चलते रहे। सिर्फ़ इसीलिए कि वह स्कूटर/मोटरसाइकिल अफ़ोर्ड नही कर पाए। पचपन की उम्र में बहुत मुश्किल से उन्होंने मोटरसाइकिल ख़रीदा। उनकी लीएबिलिटी सिर्फ़ इतनी थी कि तीन बेटों को पढ़ा लिखा दें। आज उन्ही के पद पर काम करने वाले लोगों के पास एक फ़ैमिली कार होती है। मेरे पिताजी रिटायरमेंट के समय में मोटरसाइकिल ख़रीदे। उसी पोस्ट पर काम करने वाले 1960 के दशक में लोग ज़िंदगी भर मोटरसाइकिल भी ना ख़रीद पाते थे।
यदि पंजाब के किसान की बात छोड़ दें तो 5 एकड़ जोतने वाले किसान, सिर्फ़ खेती से शायद ही कार अफ़ोर्ड कर पाएँगे। पाँच एकड़ ज़मीन वाले किसान का नेट असेट एक करोड़ के आस पास होता है। ज़रा ख़याल कीजिए कि क्या एक करोड़ की सम्पत्ति वाले किसी भी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति ऐसी हो सकती है कि वह कार अफ़ोर्ड कर सकता है।
इन दोनो मुद्दों को एक साथ मिलाकर देखिए। यह भारतीय किसानों की दास्तां कहेगी। प्रश्न ये उठता है 1960 में, 1996 में और आज के डेट में क्या कुछ बदलाव आया है कि एक ही पद पर काम करने वाले लोग क्रमश: मोटरसाइकिल का सपना भी नही देख पाते थे, किसी तरह मोटरसाइकिल ख़रीद लेते थे (कार अभी भी एक सपना रहता था) और आज कार से घूमते हैं। इसका कारण यह है कि भारत प्रोग्रेस कर रहा है। लगभग 8 प्रतिशत की दर से। इसीलिए दो जेनरेशन के बीच स्पष्ट आर्थिक अंतर नज़र में आता है। परंतु 5 एकड़ जोतने वाले किसान 1960 में भी किसी तरह अपने परिवार का पेट पालते थे, 1995 में भी पालते थे और आज भी पालते हैं। उनमें कोई बदलाव नही आया है। भारत में अच्छे रोड बने, रेलवे का इतना विस्तार हुआ, गाँव गाँव तक बिजली आ गयी, बहुत से शहर में मेट्रो बन गए हैं, आम लोग हवाई यात्रा करने लगे, लेकिन किसान वहीं के वहीं है। कौन रोका इन किसानों को भारत के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलने में।
किसानो का मुख्य उत्पाद “अन्न” है। जिससे देश का पेट भरता है। किसानो की आमदनी बढ़ाने के लिए “अन्न” का दाम बढ़ाना होगा। अन्न का दाम बढ़ाने से उसी अनुपात में लोग भूखे रह जाएँगे। इसीलिए मार्केट के हिसाब से अन्न का दाम नही बढ़ सकता। यहीं पर किसान मात खा जाता हैं। और अँततोगत्वा होता यह है कि वैश्विक मार्केट में अपने यूनिक पोज़ीशन के कारण भारत 8% की दर से बढ़ता है लेकिन किसान मात्र 3.5% की दर से बढ़ता है। इसका असर होता यह है की सरकारी कर्मचारी तो प्रत्येक दस साल में अपनी आमदनी दोगूना कर लेता है (मुद्रास्फीति को काटकर) लेकिन किसान को अपना आमदनी दोगूना करने के लिए तीस साल का इंतज़ार करना पड़ता है। बहुर्राष्ट्रीय कम्पनी के कर्मचारी प्रत्येक पाँच साल में अपनी आमदनी दोगूना कर पाता है। आमदनी के हिसाब से लोगों का लाइफ़स्टाइल बढ़ता है।
आर्थिक रूप से देखें तो किसान देश के आर्थिक प्रगति में एक बोझ की तरह है। देश का पचास प्रतिशत वर्कफ़ोर्स खेती करता है। जिसमें बाँकी सेक्टर की अपेक्षा आधे से भी काम ग्रोथ है। देश की आधी वर्कफ़ोर्स स्पीडब्रेकर का काम करती है। इसका क्या समाधान है?
इसको इस तरह से समझा जा सकता है। देश के पास पर्याप्त “अन्न” है। अपने खाने के लिए इससे ज़्यादा की ज़रूरत नही है। इसीलिए सिर्फ़ अपने खाने के लिए उत्पादकता बढ़ाने की ज़रूरत नही है।यदि कृषि उत्पादकता नही बढ़ेगा तो किसान वहीं के वहीं रह जाएँगे और देश चलता रहेगा। पहले से ही एफ़॰सी॰आई॰ के गोदाम में “अन्न” सड़ रहा है। भारत पहले से “अन्न” का अग्रणी निर्यातक है। विश्व में भी अन्न का लिमिटेड डिमाण्ड है। निर्यात के लिए कुछ और उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। उसके बाद निर्यात भी सम्भव नही है। उससे ज़्यादा उत्पादन यदि होता है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ एफ़॰सी॰आई॰ के गोदाम में सड़ेगा।
किसानो की स्थिति सुधारने के लिए मेरा निम्न सुझाव है:
1) मान लीजिए देश के खाने के लिए और निर्यात करने के लिए कृषि का अधिकतम उत्पादन ‘X’ है। साइंटिफ़िक तरीक़े से ज्ञात किया जाय कि X पैदावार के लिए कितने किसानो की ज़रूरत है। एक अनुमान के हिसाब से उचित तकनीक का प्रयोग करते हुए 15 से 20 करोड़ किसान की ज़रूरत है।
2) बाँकी 30 करोड़ किसान को कोई और काम करना चाहिए। यह कौन सा काम होगा, यह सरकार नही बता सकती। इसे उद्यमिता (entrepreneurship) के तहद करना चाहिए। सरकार के द्वारा वो सारा सुविधा दिया जाए जिससे सुदूर क्षेत्र में इस तरह का चीज़ सम्भव हो।
3) सरकार distributed development पर ध्यान दें। यानी सरकार का कोई भी भविष्य की योजना existing शहर पर आधारित नही हो। आई॰आई॰टी॰ (IIT) / ए॰आई॰एम॰एस॰ (AIMS) गाँव में खुले, यदि उसके लिए एयरपोर्ट की ज़रूरत हो तो वह भी गाँव में खुले। भविष्य का कामनवेल्थ गेम गाँव में हो। ध्यान दीजिए यदि कामनवेल्थ गेम पूर्णियाँ में हुआ होता तो वह आज गुड़गाँव की तरह विकसित होता (कलमाड़ी का कमीशन देने के बाद भी)।
4) सरकारी नौकरी कम से कम किया जाए। यह मानसिकता कि सरकारी नौकरी इसीलिए करेंगे की काम करो चाहे ना करो कोई बोलने वाला नही और घूस कमाने का उचित अवसर है। इस मानसिकता को ख़त्म किया जाए।
5) सरकार को 2050 का लक्ष्य लेकर चलना चाहिए जब कृषि में वर्कफ़ोर्स 20 करोड़ से कम करना चाहिए और अतिरिक्त 30 करोड़ लोगों को distributed development के तहद ग्रामीण इलाक़ा डेवेलपमेंट करना चाहिए।
6) भारत के विविधता के हिसाब से वेलफ़ेयर स्टेट का कंसेप्ट मुझे प्रैक्टिकल नहीं लगता। आयरलैंड, ग्रीस, स्वीडन, इत्यादि देश को जितना गेहूँ का ज़रूरत होता है उससे ज़्यादा हमारा चूहा खा लेता है। इसीलिए इन देशों के लोग के लिए कृषि उतना महत्वपूर्ण नही है।
(लेखक: Kumar Padmanabh जी)
Comments
Post a Comment