आओ पत्रकारिता की बात करें


आओ पत्रकारिता की बात करें

एक मेरे दोस्त ने मुझसे पूछा है कि पत्रकारिता के सामने क्या चुनौतियां हैं ?

मेरा मानना है कि पत्रकारिता तो अपने आप में ही एक चुनौती है। वह चुनौती है अपने आप को निष्पक्ष दिखाना।
निष्पक्ष बने रहना आज के दिन की सबसे बड़ी चुनौती है। अगर हम बात करें चैनल्स की तो देखिए आप लगातार कितने न्यूज़ चैनल झेल सकते हैं ? अगर अखबार की बात है तो कितने अखबार ऐसे हैं जिनमें हमारी मनचाही खबर छपती है ?

इस दौर में जितना दोष पत्रकारों का है उतना ही दोष दर्शकों का और पाठकों का भी है। कितने पाठक ऐसे हैं जो यह चाहते हैं कि निष्पक्ष ख़बर पढ़ने को मिले ? कोई चाहता है कि BJP की खबर पढ़ने को मिले, कोई चाहता है कि कांग्रेस की खबर प्रमुखता से छपी हो, कोई चाहता है वह वामपंथी विचारधारा का अखबार हो! दरअसल बात यह है कि सिर्फ पत्रकार ही नहीं दर्शक और पाठक भी निष्पक्ष होने चाहिएं।

वैसे अगर बात खबर की ही चली है तो मेरा मानना यह है कि खबर तो हमेशा निष्पक्ष ही रही है और निष्पक्ष रहेगी जब तक उसमें पत्रकार अपने विचार ना जोड़ दे। जहां भी पत्रकार अपना नजरिया खबर में डालता है खबर वही दूषित हो जाती है। इस महीन मिलावट का पता पाठक या दर्शकों को नहीं चलता। हमें समझना पड़ेगा कि खबर में संपादकीय का मिश्रण नहीं होना चाहिए। देखिये अगर दर्शक या पाठक अच्छी खबरों का रोना रोते हैं तो अच्छे पत्रकार भी सुधी पाठकों का रोना रोते हैं।

हमें समझना होगा कि सरकारी प्रेस और निजी क्षेत्र के मीडिया में दिन रात का फर्क है। जहां सरकारी मीडिया सत्तारूढ़ दल के लिए काम करने को अभिशप्त है वहीं निजी क्षेत्र के अखबार और चैनल मुनाफे के लिए काम ना करें तो अजीब लगता है।

यह सब कहने की बात है कि पत्रकारिता एक मिशन है अगर मिशन है तो लोगों को आगे आना चाहिए उनको मिशन के लिए तन-मन-धन भी समर्पित करना चाहिये लेकिन आज के दिन कोई व्यक्ति अपना न्यूज चैनल या अखबार धर्मार्थ चलाना शुरु करे दे तो कितने लोग चंदा देने को तैयार हैं? लब्बोलुआब यह है कि अच्छे दर्शक और पाठक भी पत्रकारिता की मांग हैं। हम सिर्फ पत्रकार बिरादरी को ही कटघरे में खड़ा नहीं कर सकते हमें दर्शकों को भी कटघरे में खड़ा करना चाहिए।

कितने दर्शक या पाठक पत्रकारों पर हुए हमले को लेकर जनांदोलन करते हैं ? कितने पाठक या दर्शक पत्रकारिता के दौरान शहीद हुए पत्रकार के घर जाते हैं उनके बच्चों के भविष्य की सुरक्षा की गारंटी लेते हैं ? हमें इन प्रश्नों का भी उत्तर खोजना होगा। आलोचना करना बहुत आसान है (हालांकि यही काम मैं भी कर रहा हूँ) लेकिन आलोचना करने वाले को आत्मविश्लेषण करना होगा।

पत्रकारों की दशा भी समझनी होगी कि वे किन परिस्थितियों में अपनी ड्यूटी बजा रहे हैं ? क्या उनके अनुरूप काम का माहौल है ? क्या उनके वेतन भत्ते आदि आज की महंगाई के अनुसार हैं ? क्या उनको मणिसाना /मजीठिया आदि आयोगों के तहत वेतन मिल रहा है ?

सवाल बहुत हैं लेकिन जानना कोई नहीं चाहता । एक पत्रकार कितने दबाव के बीच में अपना काम कर रहा है ? हालत यह है कि कॉस्ट कटिंग के नाम पर पत्रकारों की छटनी की जा रही है और एक पत्रकार से 5-6 पत्रकारों का काम कराया जा रहा है । पहले अखबारों में प्रूफ रीडर हुआ करते थे लेकिन आज किसी अखबार में पोस्ट है भी या नहीं यह कोई नहीं जानता ।

मतलब साफ है कि मीडिया संस्थानों को ऐसे पत्रकार चाहिएं जो मानव न होकर महामानव हों। तस्वीर का एक और रुख देखना कि मीडिया संस्थान संस्थानों के मालिक भी क्या सुखद स्थिति में हैं ? क्या उनके चैनल व्यापार या अखबार ऐसी आर्थिक स्थिति में हैं कि वह तमाम दबावों को धता बताकर निष्पक्ष पत्रकारिता कर सकें ? मैं ना तो किसी पक्ष को दोषी मानता हूं और ना ही किसी पक्ष को क्लीन चिट दे रहा हूँ । मन में कुछ प्रश्न थे जिनके जवाब मिलने ही चाहिएं।

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